प्राचीन भारतीय कथाओं और पुराणों में भगवान शिव के अनेक रूपों का वर्णन मिलता है, जिनमें से एक अत्यंत अद्भुत और रौद्र रूप है काल भैरव का। उन्हें ‘समय का स्वामी’ कहा जाता है – यानी वे देवता जो समय और मृत्यु दोनों को नियंत्रित करते हैं। उनका नाम ही इस तथ्य को स्पष्ट करता है: “काल” का अर्थ समय और मृत्यु दोनों है, जबकि “भैरव” का अर्थ भय को हरने वाला है। ऐसा माना जाता है कि काल भैरव भय और मृत्यु के भय का नाश करते हैं, और यहाँ तक कि स्वयं मृत्यु भी उनसे कांपती है।
भारतीय लोककथाओं और पुराणों में काल भैरव की कहानियाँ इस संदेश को रोमांचक ढंग से प्रस्तुत करती हैं कि जो सत्य के मार्ग पर चलते हैं, उनके लिए समय भी अधीन होता है, लेकिन अहंकारियों के लिए समय का चक्र विनाशकारी बन जाता है। इस ब्लॉग में, हम कथा-प्रधान शैली में काल भैरव की उत्पत्ति, उनके कालस्वरूप की महिमा, तंत्र परंपरा में उनके स्थान, उनके प्रसिद्ध मंदिरों से जुड़ी रोचक लोककथाएँ और पूजा विधान पर विस्तृत चर्चा करेंगे। आइए, कथा के सूत्र को पकड़ते हुए आगे बढ़ते हैं।
काल भैरव की उत्पत्ति की कथा
पुराणों के अनुसार, काल भैरव की उत्पत्ति एक दिव्य घटना से जुड़ी है। शिव पुराण और स्कंद पुराण में वर्णित कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के बीच यह विवाद हो गया कि उनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन है। अनेक देवताओं ने शिव को सर्वोच्च माना, लेकिन ब्रह्माजी इस निर्णय से सहमत नहीं थे और क्रोधवश उन्होंने भगवान शिव के प्रति अपमानजनक शब्द कहे।
यह देखकर भगवान शंकर क्रोधित हो उठे। उनकी तीसरी आँख से एक प्रचंड ज्वाला प्रकट हुई, और उस ज्वाला से एक भयंकर रूप धारण किए हुए देव प्रकट हुए – यही थे काल भैरव। प्रकट होते ही काल भैरव ने अपने तीक्ष्ण नख (नाखून) के एक प्रहार से ब्रह्माजी के पांचवें सिर को धड़ से अलग कर दिया। ब्रह्मा का पांचवां सिर जो शिवनिंदा कर रहा था, उसे काटकर काल भैरव ने ब्रह्माजी का घोर अहंकार नष्ट कर दिया।
इस प्रकार, शिव ने काल भैरव रूप में प्रकट होकर ब्रह्मा के अहंकार का दमन किया, जिसे रूपक रूप में अहंकार और अभिमान के विनाश के संदेश के रूप में भी देखा जाता है। काल भैरव के इस कृत्य से सभी देवी-देवता स्तब्ध रह गए और शिव के इस रौद्र रूप की महिमा स्वीकार की।
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ब्रह्माजी को अपनी भूल का एहसास हो गया और उन्होंने शिव से क्षमा याचना की। स्वयं काल भैरव ने भी बाद में ब्रह्माजी को क्षमा कर दिया। लेकिन चूंकि ब्रह्महत्या (ब्रह्मा जैसे ब्राह्मण का वध) का पाप काल भैरव के सिर पर आ गया था, उन्हें ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त होने के लिए भटकना पड़ा। काल भैरव हाथ में ब्रह्माजी का कटा हुआ सिर (कपाल) लिए तीनों लोकों में प्रायश्चित हेतु भिक्षा मांगते फिरते रहे।
ऐसा माना जाता है कि अंततः काशी (वाराणसी) पहुँचने पर ही उन्हें इस पाप से मुक्ति मिली और ब्रह्मा का कपाल उनके हाथ से पृथ्वी पर गिरकर मुक्त हुआ। यह तीर्थ स्थान आज काशी में “कपालीमोचन तीर्थ” कहलाता है। एक अन्य कथा के अनुसार, शिव ने स्वयं काल भैरव को आदेश दिया कि वे काशी नगरी में ही रहें और नगर के क्षेत्रपाल (रक्षक) बनकर धर्म की रक्षा करें। तभी से काल भैरव काशी में प्रतिष्ठित हैं और नगर की रक्षा करते हैं।
काल भैरव को ‘समय का स्वामी’ क्यों कहा जाता है?
काल भैरव का नाम ही उनके समय-संबंधित पहलू को उजागर करता है। संस्कृत में “काल” शब्द का अर्थ समय भी है और मृत्यु भी। काल भैरव वह हैं जो समय तथा मृत्यु दोनों पर विजय पाते हैं तथा भक्तों को इनका भय नहीं होने देते। शास्त्र कहते हैं कि काल (मृत्यु/समय) भी काल भैरव से डरता है, इसलिए उन्हें कालों का काल कहा गया। शिव ने इस रूप को वरदान दिया था कि “तुम्हारी प्रताप से स्वयं काल भी भयभीत होगा और इसलिए तुम्हें कालभैरव नाम से जाना जाएगा।”
काल भैरव समय के प्रतीक हैं – वे जीवन के नाशवान (क्षणभंगुर) स्वरूप की याद दिलाते हैं। उनके भैरव स्वरूप को “चलते हुए समय” का रूपक माना जाता है, जो यह दर्शाता है कि समय निरंतर गतिमान है और कोई भी उससे परे नहीं है। फिर भी जो काल भैरव की शरण में हैं, ऐसा विश्वास है कि वे समय के दुष्प्रभावों से सुरक्षित रहते हैं। उदाहरण के लिए, काल भैरव अष्टकम् स्तोत्र में आदिशंकराचार्य कहते हैं कि काल भैरव की कृपा से भक्त कालचक्र के भय से मुक्त होकर आध्यात्मिक उन्नति करते हैं।
भैरव को न्याय का देवता भी कहा जाता है – उनका दंड हाथ में रहता है, जिससे वे पापियों को दंडित करते हैं और समय का न्याय सुनिश्चित करते हैं। इस प्रकार, काल भैरव को समय और कर्म का सुपरीक्षण करने वाला देवता माना गया है। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रत्येक प्राणी को उसके कर्मों का फल मिले, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, और यह सब समय के चक्र के भीतर ही होता है। यही कारण है कि वे केवल मृत्यु के देवता नहीं, बल्कि समय के समस्त पहलुओं पर नियंत्रण रखने वाले समय के स्वामी के रूप में पूजे जाते हैं।
काल भैरव का स्वरूप, वाहन और प्रतीकवाद
काल भैरव का स्वरूप अत्यंत रौद्र एवं भयावह होते हुए भी गहरे प्रतीकात्मक अर्थ समेटे हुए है। वह उग्र रूप में भयानक मुख-मुद्रा, तीनों नेत्रों से अग्नि समान तेज, तथा भौंहें तनी हुई रखते हैं। उनकी प्रसिद्ध आकृति इस प्रकार वर्णित है: गले में मुंडों की माला (खोपड़ियों की माला), शरीर पर बाघ की खाल धारण किए हुए, और अंग-प्रतंग पर विशाल सर्पों के आभूषण (कुण्डल, बाजूबंद, यज्ञोपवीत आदि) सुशोभित हैं। वे अपने हाथों में त्रिशूल (Trident), डमरू, पाश (फांसी का फंदा) और कपाल (खोपड़ी का कटोरा) धारण करते हैं।
इन अस्त्र-शस्त्रों का भी गूढ़ अर्थ है – त्रिशूल सृष्टि, पालन एवं संहार की त्रिगुण शक्तियों का प्रतीक है, डमरू ब्रह्मांडीय नाद (ॐ) और सृजन की लय का प्रतीक है, पाश यह दर्शाता है कि काल भैरव नकारात्मक शक्तियों को नियंत्रित रखते हैं, तथा मुंडों की माला जीवन-मृत्यु के चक्र का स्मरण कराती है।
काल भैरव का वाहन एक काला कुत्ता है। कुत्ता उनके प्रति अटूट निष्ठा और रक्षक-भाव का प्रतीक है – मान्यता है कि काल भैरव के द्वार पर एक कुत्ता सभी दिशाओं से आने वाले अनिष्ट से पहरा देता है। काशी की लोकमान्यता में तो यहाँ तक कहा जाता है कि यदि काशी जैसे पवित्र स्थान में कोई पापाचरण या अनधिकारी व्यक्ति प्रवेश करने का प्रयास करे तो भैरव का कुत्ता ही सबसे पहले उसे पहचानकर रोक देता है।
भैरव की प्रतिमा प्रायः एक दंड (लाठी) लिए भी दिखाई देती है, इसलिए उन्हें दण्डपाणि (हाथ में दंड धारण करने वाले) भी कहा जाता है। यह दंड दर्शाता है कि वे अधर्मियों को दंड देकर न्याय स्थापित करते हैं। अतः काल भैरव की भयंकर मूर्ति वास्तव में धर्म और न्याय की स्थापना तथा भय से मुक्ति का संदेश देती है। उनका रौद्र स्वरूप केवल डराने के लिए नहीं, बल्कि भक्तों को यह विश्वास दिलाने के लिए है कि वे हर प्रकार के भय और बुराई का नाश करने में सक्षम हैं, और वे सदैव अपने भक्तों की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं।
काल भैरव और तंत्र साधना
तंत्र परंपरा में काल भैरव का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण और विशिष्ट है। भैरव को तंत्र के रक्षक और अघोर पंथ के अधिष्ठाता देवता माना जाता है। प्राचीन काल से शैव तंत्र साधना में भैरव की उपासना प्रमुख रही है। इतिहास में कापालिक तथा अघोरी संप्रदाय के साधक विशेष रूप से काल भैरव की अराधना करते थे। उज्जैन नगरी तो इन तांत्रिक परंपराओं का गढ़ रही है, जहाँ काल भैरव की पूजा अघोराचार्यों द्वारा की जाती थी। भैरव को श्मशान का प्रहरी भी कहते हैं – कई तांत्रिक साधनाएँ श्मशान भूमि में आधी रात को भैरव की कृपा प्राप्त करने हेतु की जाती हैं, क्योंकि भैरव का उग्र स्वरूप भय पर विजय का प्रतीक है।
तंत्र साधना में पंचमकार नाम से पांच विशेष पदार्थों को भोग लगाने की परंपरा प्राचीन काल में थी: मद्य (शराब), मांस, मीन (मछली), मुद्रा (अन्न या अन्न से बनी वस्तु) और मैथुन। काल भैरव को विशेषतः मद्य अर्थात शराब का भोग तांत्रिक विधियों में लगाया जाता रहा है। इसका एक अर्थ यह भी है कि जो वस्तुएँ साधारण धर्माचार में वर्जित हैं, उन्हें भी भैरव जैसी उग्र शक्ति में समर्पित कर साधक अपने भय और वर्जनाओं पर विजय पाता है।
इसलिए अघोरी साधु काल भैरव को मद्य-मांस आदि समर्पित कर, संसार के भय और माया से ऊपर उठने का अभ्यास करते थे। हालांकि, वर्तमान पूजा पद्धति में इन पांच में से अधिकांश चीज़ें प्रतीक रूप में ही अर्पित की जाती हैं, केवल मदिरा (शराब) अब वास्तविक रूप में काल भैरव को चढ़ाई जाती है। यह प्रथा तंत्र मार्ग के गहरे दर्शन को दर्शाती है, जहाँ वर्जित माने जाने वाले पदार्थों का उपयोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए किया जाता है, ताकि साधक अपनी सीमाओं और सामाजिक बंधनों से ऊपर उठ सकें।
प्रमुख काल भैरव मंदिर और उनसे जुड़ी लोककथाएँ
भारत में काल भैरव के कई प्राचीन मंदिर हैं, जिनसे जुड़ी रोचक मान्यताएँ और कथाएँ प्रचलित हैं। यहाँ कुछ प्रमुख मंदिरों का उल्लेख है:
वाराणसी (काशी) का काल भैरव मंदिर:
वाराणसी में काल भैरव को विशेष सम्मान प्राप्त है। उन्हें “काशी के कोतवाल” कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि वे नगर के प्रहरी और न्यायकारी अधिकारी हैं। जनश्रुति है कि बाबा काल भैरव की अनुमति के बिना कोई काशी नगरी में ठहर नहीं सकता या नगर से बाहर नहीं जा सकता – वे ही तय करते हैं कि कौन काशी में निवास करे। कहा जाता है कि स्वयं भगवान शिव ने काल भैरव को यह दायित्व सौंपा कि वे काशी की रक्षा करें और पापियों को दंड दें। इस मंदिर में काल भैरव की मूर्ति चांदी के मुखवाले स्वरूप में स्थापित है, जो कुत्ते पर विराजमान है और हाथ में त्रिशूल धारण किए है।
काशी के प्रत्येक निवासी के हृदय में काल भैरव के प्रति प्रेम और सम्मान है क्योंकि लोकविश्वास है कि उनकी कृपा के बिना वाराणसी में मोक्ष भी संभव नहीं। काशी विश्वनाथ के दर्शन करने आने वाले श्रद्धालु सबसे पहले काशी कोतवाल काल भैरव के दर्शन करते हैं, तभी उनकी यात्रा पूर्ण मानी जाती है। यह भी मान्यता है कि काल भैरव बुरी शक्तियों को नगर में प्रवेश नहीं करने देते और काशी की पवित्रता बनाए रखते हैं। उनका आशीर्वाद ही काशी में शांति और समृद्धि का आधार माना जाता है।
उज्जैन (भैरवगढ़) का काल भैरव मंदिर:
मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में क्षिप्रा नदी के तट पर भैरवगढ़ क्षेत्र में काल भैरव का अति प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। यह मंदिर प्राचीन अवन्तिका (उज्जैन) की अधिष्ठानी शक्तियों में से एक है। स्कंद पुराण के अवंती खंड में इसका उल्लेख मिलता है कि उज्जैन के राजा भद्रसेन ने प्राचीन काल में यहां काल भैरव की प्रतिष्ठा करवाई थी। उज्जैन को भगवान शिव की नगरी महाकालेश्वर के लिए जाना जाता है, और काल भैरव को उज्जैन का सेनापति (मुख्य प्रहरी) कहा जाता है।
लोककथा है कि मराठा काल में महाराज महादजी शिंदे ने युद्ध में विजय की प्रार्थना करते हुए अपनी पगड़ी काल भैरव को चढ़ाई थी। विजय मिलने पर उन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया, तबसे मराठा शैली की पगड़ी काल भैरव की मूर्ति पर धारण कराने की परंपरा चली आ रही है। उज्जैन के इस मंदिर की सबसे अनूठी परंपरा है – यहाँ भगवान काल भैरव को शराब का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
प्रतिदिन सैकड़ों श्रद्धालु मंदिर के बाहर से मदिरा की बोतल प्रसादस्वरूप खरीदते हैं और पुजारी उसे कटोरे में भरकर काल भैरव की प्रतिमा के होंठों से लगाता है। आश्चर्यजनक रूप से कटोरे का तरल धीरे-धीरे गायब होने लगता है, मानो काल भैरव स्वयं उसे पी रहे हों! बचा हुआ प्रसाद स्वरूप थोड़ा-सा द्रव्य पुजारी भक्तों को लौटा देता है। यह चमत्कार प्रसिद्ध है और वैज्ञानिक तौर पर इसे मूर्ति में बने छिद्र-प्रणाली से जोड़कर देखा जाता है, मगर भक्त इसे काल भैरव की लीला मानते हैं।
उज्जैन में मान्यता है कि महाकाल (शिव) के दर्शन तब तक पूर्ण नहीं माने जाते जब तक उनके सेनापति काल भैरव के दर्शन न कर लिए जाएँ। ऐसी भी धारणा है कि शिव ने भैरव को वरदान दिया था कि उज्जैन आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु सबसे पहले भैरव की पूजा करेगा। उज्जैन का काल भैरव मंदिर तांत्रिक परंपरा से भी गहराई से जुड़ा है, कहते हैं कि यह मंदिर हजारों वर्षों से अघोर साधना का केंद्र रहा है और यहां आज भी तंत्र-मंत्र से संबंधित चमत्कारों की कथाएँ लोक में प्रचलित हैं।
(भारत में अन्य भी कई स्थानों पर काल भैरव के प्राचीन मंदिर हैं, जैसे दिल्ली में पुराणिक भैरव मंदिर जिसे पांडवों द्वारा स्थापित माना जाता है, नेपाल के काठमांडू में काल भैरव की विशाल प्रतिमा जो न्यायालय परिसर में लगी है, आदि। इन सभी मंदिरों में काल भैरव की महिमा और उनकी उपस्थिति के अलग-अलग पहलू देखे जा सकते हैं।)
काल भैरव को शराब का भोग क्यों लगाया जाता है?
यह प्रश्न कई लोगों के मन में आता है कि एक देवता को शराब जैसा पदार्थ भेंट करना कैसे धार्मिक हो सकता है। दरअसल, काल भैरव को शराब चढ़ाने की परंपरा का संबंध तांत्रिक पूजा पद्धति से है। तंत्र मार्ग में पांच “म” (पंचमकार) माने गए हैं, जिनमें मद्य (शराब) प्रमुख है। भैरव के उग्र और अघोर स्वरूप को प्रसन्न करने के लिए साधक प्रतीक रूप में इन्हीं वर्जित वस्तुओं का समर्पण करते थे, ताकि वे अपनी वासनाओं और डर पर विजय पा सकें।
शास्त्रों में मदिरा को काल भैरव का प्रिय भोग कहा गया है, क्योंकि वह तामसिक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है जिसे भैरव नियंत्रित करते हैं। आज उज्जैन स्थित काल भैरव मंदिर में यह परंपरा जीवंत है जहां सरकारी दुकानों से नियंत्रित दर पर शराब प्रसाद के तौर पर मिलती है और भक्त श्रद्धापूर्वक बाबा को अर्पित करते हैं। इसे भक्त भैरव बाबा की अनूठी कृपा मानते हैं कि भगवान अपने भक्तों का चढ़ाया द्रव्य स्वयं ग्रहण करते हैं।
आध्यात्मिक रूप से इसका तात्पर्य यह भी लिया जाता है कि काल भैरव भक्तों के विकार रूपी मद को पीकर उन्हें शुद्ध करते हैं। वही शराब जो सामान्य व्यक्ति को मदहोश कर सकती है, भैरव के चरणों में अर्पित होने पर भक्त के विकार दूर करने वाली बन जाती है – यह एक आध्यात्मिक रूपांतरण का प्रतीक है। यह क्रिया केवल भोग लगाना नहीं, बल्कि साधक के आंतरिक शुद्धिकरण और भय मुक्ति का एक तरीका है।
आधुनिक युग में काल भैरव उपासना का आध्यात्मिक व मनोवैज्ञानिक महत्व
आज के वैज्ञानिक और तेज़ रफ़्तार जीवन में भी काल भैरव की उपासना प्रासंगिक है। आध्यात्मिक दृष्टि से काल भैरव अज्ञान और अंधकार के विनाश का प्रतीक हैं। उनकी कथा हमें चेताती है कि अहंकार (ब्रह्मा का पांचवां सिर) कितना भी बड़ा हो, समय (काल) के आगे टिक नहीं सकता – अंततः विनम्रता और धर्म की विजय होती है। यह भावना व्यक्ति के मन से अहंकार को नष्ट करने में सहायक हो सकती है। जब हम काल भैरव की पूजा या ध्यान करते हैं, तो हम अपने भीतर के डर, असुरक्षा और नकारात्मक भावनाओं से लड़ने की शक्ति पाते हैं।
मनोवैज्ञानिक रूप से, भैरव साधना हमें भय से परे निष्पाप जीवन जीने का संबल देती है – भय चाहे मृत्यु का हो या असफलता का, काल भैरव का स्मरण कर व्यक्ति दृढ़ता से उसका सामना कर सकता है। काल भैरव को समय का स्वामी कहा जाता है, अतः आधुनिक जीवन में समय प्रबंधन और अनुशासन के लिए भी उनकी प्रतीकात्मक याद उपयोगी है। भैरव हमें सिखाते हैं कि समय का चक्र निरंतर चलायमान है और हमें हर क्षण का सदुपयोग धर्मपूर्वक करना चाहिए। जिस प्रकार काल भैरव नगर के प्रहरी हैं, उसी प्रकार हम अपने जीवन रूपी “नगर” के प्रहरी बनें – बुरी आदतों और विचारों को अपने अंदर प्रवेश न करने दें।
भैरव उपासना से जुड़ा एक मानवीय पहलू भी है: करुणा और निस्वार्थ सेवा। काल भैरव के वाहन कुत्ते को भोजन कराना हो, या भयभीत व दुखी जनों की रक्षा करना – भैरव भक्त इन कर्मों में संलग्न होकर समाज में सकारात्मकता फैलाते हैं। इस दृष्टि से काल भैरव की आराधना मानव सेवा का संदेश भी देती है। अंततः, काल भैरव का चरित्र हमें यह याद दिलाता है कि समय से बड़ा कोई नहीं, लेकिन एक शुभचिंतक, न्यायकारी शक्ति हमेशा हमारी रक्षा को तत्पर है।
भक्ति और श्रद्धा से काल भैरव का स्मरण करने पर भक्त अपने जीवन में एक अद्भुत आत्मिक साहस और नियंत्रण अनुभव करते हैं। भय उन पर हावी नहीं होता, बल्कि वे समय की महत्ता को समझकर प्रत्येक पल को सत्कर्म में लगाने का प्रयास करते हैं। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में काल भैरव की कथा और उपासना हमें धैर्य, निडरता, अनुशासन और न्यायपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करती है, जो आत्मिक उत्थान के साथ-साथ मानसिक शांति का मार्ग भी दिखाती है।
समय के स्वामी काल भैरव सिर्फ पौराणिक देवता ही नहीं, बल्कि एक दार्शनिक प्रतीक हैं – जो हमें सिखाते हैं कि समय का सम्मान करें, भय का त्याग करें, सत्य के मार्ग पर अडिग रहें और अन्याय का प्रतिकार करने का साहस रखें। उनकी रोचक कथाएँ और लोकपरंपराएँ भारतीय संस्कृति की बहुमूल्य धरोहर हैं, जो हमें जीवन प्रबंधन की कला सिखाती हैं। आशा है यह कथा-यात्रा आपको काल भैरव के रहस्यमय और प्रेरणादायक स्वरूप से परिचित कराने में सफल रही होगी। भक्तजन अंत में यही प्रार्थना करते हैं: “जय काल भैरव! हमें समय के सदुपयोग और भय-मुक्त जीवन का वरदान दें।”